इन दरवाज़ों के पीछे कभी ज़िन्दगी बसा करती होगी, इस दहलीज़ के अंदर कभी महफ़िलें सजा करती रहीं होंगी;
इनके आँगन में कभी गूंजा करती होगी बच्चों की किलकारी, कभी नानी, कभी दादी, कभी प्यारी सी बुआ हमारी
इनकी चौखट पर कभी चाची की प्यासी आँखें चाचा का इंतज़ार करती रहीं होंगी, इनकी दलानो पर कभी चाचा ताऊ की तकरार भी हुई ही होगी; इस दहलीज़ को लांघ कितनी बहुएं घर आयीं होंगी, और सिर्फ अपनी मय्यत पर ही इसको छोड़ कर जा पायीं होंगी
इनके आँगन में कभी गूंजा करती होगी बच्चों की किलकारी, कभी नानी, कभी दादी, कभी प्यारी सी बुआ हमारी
इनकी चौखट पर कभी चाची की प्यासी आँखें चाचा का इंतज़ार करती रहीं होंगी, इनकी दलानो पर कभी चाचा ताऊ की तकरार भी हुई ही होगी; इस दहलीज़ को लांघ कितनी बहुएं घर आयीं होंगी, और सिर्फ अपनी मय्यत पर ही इसको छोड़ कर जा पायीं होंगी
अंदर की कोठरियां तो दिखाई नहीं देतीं, पर शायद वहां मोहब्बतें पनपी होंगी, कुछ किस्से बुने गए होंगे, कुछ कहानिये पढ़ी गयीं होंगी; चौके के चूल्हे पर कभी गरम रोटियां तो कभी कभी अम्मा की उँगलियाँ सिकीं होंगी, पर किसीको एक आह भी नहीं सुनाई पड़ी होगी.
बरामदे की खटिया पर बैठती थी शायद दादी, कभी मटर छिलती तो कभी बढ़िया बनाती; कभी मेहरिन से बतियाती, कभी महाराजिन को हड़कतीं; बड़ा नाज़ था उनको अपने इस परिवार पर, इसकी हर एक ईंट, हर दीवार पर;
क्या कभी सोचा था उन्होंने की एक ऐसा भी दिन आएगा, जब उनका यह घर खँडहर बन जायेगा, न कोई इसके आँगन में हसेंगा, न कोई खिखिलायेगा, न यहाँ कोई रोयेगा न मुस्कुराएगा;
क्या कभी सोचा था दादा ने की उनका ही पोता उनके खून पसीने की कमाई को बेच खायेगा, उनके टूटे हुए सपनों पर एक आंसू भी न बहायेग.
कौन जाने किसका का है ये आशियाँ, जिसमें न अब जिस्म बचें हैं न जान; शायद भूत रहतें होंगे अंदर, आवाज़ें तो आतीं हैं तरह तरह की अक्सर: कभी बेतहाशा हंसी की, तो कभी फ़ूट फ़ूट के रोने की, और कभी कभी किसी बच्चे के खिलोने की;
कहते हैं जो रहतें हैं इस गांव में, भूत ही सही कोई तो बचा कई इसकी टूटी फूटी छाँव में, सच ही तो है ये कहानी, आख़िर में न राजा बचता है न रानी, बस रह जाता हैं उनके ख्वाबों का खंडहर और उसकी बर्बादी की कहानी I
बरामदे की खटिया पर बैठती थी शायद दादी, कभी मटर छिलती तो कभी बढ़िया बनाती; कभी मेहरिन से बतियाती, कभी महाराजिन को हड़कतीं; बड़ा नाज़ था उनको अपने इस परिवार पर, इसकी हर एक ईंट, हर दीवार पर;
क्या कभी सोचा था उन्होंने की एक ऐसा भी दिन आएगा, जब उनका यह घर खँडहर बन जायेगा, न कोई इसके आँगन में हसेंगा, न कोई खिखिलायेगा, न यहाँ कोई रोयेगा न मुस्कुराएगा;
क्या कभी सोचा था दादा ने की उनका ही पोता उनके खून पसीने की कमाई को बेच खायेगा, उनके टूटे हुए सपनों पर एक आंसू भी न बहायेग.
कौन जाने किसका का है ये आशियाँ, जिसमें न अब जिस्म बचें हैं न जान; शायद भूत रहतें होंगे अंदर, आवाज़ें तो आतीं हैं तरह तरह की अक्सर: कभी बेतहाशा हंसी की, तो कभी फ़ूट फ़ूट के रोने की, और कभी कभी किसी बच्चे के खिलोने की;
कहते हैं जो रहतें हैं इस गांव में, भूत ही सही कोई तो बचा कई इसकी टूटी फूटी छाँव में, सच ही तो है ये कहानी, आख़िर में न राजा बचता है न रानी, बस रह जाता हैं उनके ख्वाबों का खंडहर और उसकी बर्बादी की कहानी I
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